शनिवार, 23 अगस्त 2014

रमई काका की दो कविताएं

1.देश की आजादी क्यार इंतिजार करति भए (सन 1947 से पहिले )रमई काका सब मनइन का धैर्य बंधाय रहे हैं तनी यहौ कविता देखि लीन जाय-

भिनसार
अब कबै भिनसार होई ?
निठुर पच्छिम के गगन मां/बन्द सूरज तेज धारी
भेद हित परकास किरनै /छटपटाती हैं बिचारी।
फैइलिगै गहवरि अंधेरिया/बिकट अन्धाधुन्ध कारी
तमकि उझकति नखत नभ के /मैं अंधेरिया अस दुखारी।
लइ लपट विकराल लहकति/कब पुरब लाली पधारी
औ अन्धेरे क्यार पिंजरा/जरि छिनक मा छार होई।
अब कबै भिनसार होई।।
अंग के उपजे पतउवन /ते बंधी पलई डरइया
अपनेहे संतान बनिगे/हाय बन्धन के बंधइया।
पात मूंदेनि चलकुरन का/बंधि गई सिगरी चिरइयां
वास अपने अब बने हैं/काल की अंधरी कोठरिया।
गीत मनके सोइगे सब/भूलि गै सुख की बधइया
नींद का बन्धनु कटी अब/नीक मंगलचार होई।
अब कबै भिनसार होई॥
कंवल बन्दीघर बने हैं/भंवर हुइगे बन्द जिनमा
हां!बने बंधना कसीले/पंख अपने चपटि तन मा।
मीत छुट्टा गीत मन के/हाथ हुइगे बन्द मन मा
बन्द गांठन की रसरिसन /ते बंधे हैं बोल छिन मा।
कब किरन लइ कै कटारी/आय पूरब के गगन मा
बन्ध काटि दुआर खोली/नाद जय जयकार होई
अब कबै भिनसार होई॥
कब रही हरदम अन्धेरिया/धीरु धर उजियारु आई
लुकि सकुचि अंधियारु भागी/धरि मुकुट भिनसार आई।
गूंथि सोने की किरन मा/सुरज जगमग हारु लाई
मलय परबत की बयरिया/अतर कै गमकार लाई।
बिहग गीत अजाद गइहैं /बन भंवर गुंजार होई
जब सुघर भिनसार होई/बन्द किरनै छूटि पतवन।
परसि महरा रहसु रचिहैं/लहकिहैं पतवा गमकिहैं
फूल डारन फाग मचिहै/पलक पखुरिन के खुलत खन।
उतरि भंवरा थिरकि नचिहैं/ चैतु नस-नस मा समाई
सोये मन के गीत चेतिहैं/करमु जागी धरमु जागी।
जब सपन के भरम तजिहैं/झूंठ बिनसी, सांचु दरसी
तब चटक उजियार होई/धीर धरु भिनसार होई।।

 2.मित्रो काका की स्यामा गाय शीर्षक कविता देखिए-इसमे आपको अवध के गांवो की गोसेवा करने वाली खेतिहर जनता का सहज चित्र दिखेगा।दूसरी ओर यह कविता हमे गाय के आर्थिक/सांस्कृतिक स्वरूप अभिव्यक्त करने वाले उन अनेक वैदिक कवियों के सूक्तो की याद दिलाती है।तनी पढिकै आपन बिचार लिखा जाय-





स्यामा गाय  



भोली भाली गैया हमारि/स्यामा सीधी गैया दुधारि।
जब मुनुवा की आंखी ध्वावै/घरतिन कांची-कूची गावै
तब बंबकति बछरा का पुकारि/स्यामा सीधी गैया हमारि॥
जब किरन परी चलि आवति है/भुंइ पर उजेरु ढरकावति है
तब गैआ दूधु दुहावति है/मुंहुकौरु भरति बटई हमारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
बछरा पर नेह अपार बहै/जीभौ ते अमरित धार बहै
दुइ थन ते गंग दुधारि बहै/कटि जाति पाप भिटरी निहारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
निरमल सागर छीर अयन मा /दरस स्याम के स्याम रंग मा
उपजत है सुखु अंग अंग मा/स्यामा सीधी गाय निहारि।
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
नभ स्याम बदरिया बिचरि-बिचरि/भुंइअ पर जलु बरसति घुमरि-घुमरि
पर करति रहति दुधिया बरखा/हमरे घर मा स्यामा दुधारि
 स्यामा सीधी गैया हमारि॥
यह देति दूधु औ दही मखन/है यहिते सबु घरु चगन मगन
भाण्डा मेटिया तक चटक चिकन/पाहुन उपही के हखन हारि
 स्यामा सीधी गैया हमारि॥
अवलम्बु यहै है आस यहै/पूरति मन कै अभिलास यहै
है करति उजेरु अभास यहै/हमरी अन्धियारी का बिदारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
यह अमरित देनी गैया है/हमरे घर यहै जोन्हैया है
यहि कै तस्बीर जोन्हैया तौ/हैं लीन्हे गोदी मा संभारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
जब चरत चरत थकि बैठि जांय/निज नयन मूंदि कै मुंहु लेवायं
जनु ध्यान मगन देबी लखांय/लुरखुरी करैं चिरिया निहारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥
यह देत बछा देंहगर बलगर/हम भुंइअ जोतिति जिनके बल पर
है रिनु यहिका हम पर जग पर/यह दूध पूत अन धन अगारि
स्यामा सीधी गैया हमारि॥



बुधवार, 25 जून 2014

 रमईकाका की जन्मशती:

  बौछार की भूमिका में डां. रामविलास शर्मा ने  लिखा था-उनकी गंभीर रचनाओं में एक विद्रोही किसान का उदात्त स्वर है,जो समाज में अपने महत्त्वपूर्ण स्थान को पहचान रहा है और अधिकार पाने के लिए कटिबद्ध हो गया है।
धरती हमारि –इसी कोटि की रचना है।
 धरती हमारि
धरती हमारि धरती हमारि
हैं चरती परती गउवन कै /औ ख्यातन कै धरती हमारि।
धरती हमारि धरती हमारि।
हम अपनी छाती के बल ते धरती मा फारु चलाइति है।
माटी के नान्हे कन कन मा,हमहीं सोना उपजाइति है॥
अपने सोनरखे पसीना ते ,रयातौ मा ख्यात बनावा हम।
मुरदा मानौ जिन्दा हुइगौ,जहं लोखर अपन छुवावा हम ॥
कंकरीली उसर बंजर परती,धरती भुडगरि नीबरि जरजरि।
बसि हमरे पौरुख के बल ते ,होइगै हरियरि दनगरि बलगरि॥
हम तरक सहित ब्वावा सिरजा,सो धरती है हमका पियारि॥
धरती हमारि धरती हमारि॥
हमरे तरवन की खाल घिसी,औ रकतु पसीना एकु कीन।
धरती मैया की सेवा मा,हम तपसिन का अस भेसु कीन॥
है सहित ताप के बडे घात,परचंड लूक कटकट सरदी।
रवांवन-रवांवन मा रमिति रोजु,चनदनु असि धरती कै गरदी॥
ई धरती का जोते जोते,केतने बैलन के खुर घिसिगे।
निखवखि फरुहा फारा खुरपी,ई माटी मा हैं घुलि मिलिगे॥
अपने चरनन की धूरि जहां,बाबा दादा धरैगे संभारि॥
धरती हमारि धरती हमारि॥
हम हन धरती के बरदानी,जहं मूठी भरि छांडति बेसार।
भरि जाति कोख मा धरती के,अनगिनत परानिन के अहार॥
ई हमरी मूठी के दाना,ढ्यालन की छाती फारि फारि ।
है कचकचाय कै निकरि परति,लहि पौरुखु बल फुरती हमारि॥
हम अनडिगे पैसरम के,हैं साच्छी सूरज औ अकास।
परचंड अगिनि जी बरसाएनि,हम पर दुपहरि मा जेठ मास॥
ई हैं रनख्यात जिन्दगी के,जिनमा जीतेन हम हारि हारि॥
धरती हमारि धरती हमारि॥
प्रस्तुति:भारतेन्दु मिश्र


रविवार, 15 जून 2014



रमई काका ग्रामीड जीवन की विसंगति के चतुर चितेरे हैं उनकी कबिता देखिए
-छीछाल्यादरि-




लरिकउनू बी ए पास किहिनि, पुतहू का बैरू ककहरा ते।
वह करिया अच्छरू भैंसि कहं, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।

दिनु राति बिलइती बोली मां, उइ गिटपिट गिटपिट बोलि रहे।
बहुरेवा सुनि सुनि सिटपिटाति, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।

लरिकऊ कहेनि वाटर दइदे, बहुरेवा पाथर लइ आई।
यतने मा मचिगा भगमच्छरू, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।

उन अंगरेजी मां फूल कहा, वह गरगु होइगे फूलि फूलि।
उन डेमफूल कह डांटि लीनि, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।

बनिगा भोजन तब थरिया ता, उन लाय धरे छूरी कांटा।
डरि भागि बहुरिया चउका ते, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो।

लरिकऊ चले असनान करै, तब साबुन का उन सोप कहा।
बहुरेवा लइकै सूप चली, यह छीछाल्यादरि द्याखौ तो। 

प्रस्तुति:भारतेन्दु मिश्र 

रविवार, 4 मई 2014



जन्मशती  वर्ष पर पावन स्मरण।

चन्द्रभूषण त्रिवेदी उर्फ रमई काका की दो कविताएं-
काका केरि बहुचर्चित कबिता
1.- ध्वाखा-
हम गयन याक दिन लखनउवै, कक्कू संजोगु अइस परिगा
पहिलेहे पहिल हम सहरु दीख, सो कहूँ - कहूँ ध्वाखा होइगा|

जब गएँ नुमाइस द्याखै हम, जंह कक्कू भारी रहै भीर
दुई तोला चारि रुपइया कै, हम बेसहा सोने कै जंजीर
लखि भईं घरैतिन गलगल बहु, मुल चारि दिनन मा रंग बदला
उन कहा कि पीतरि लै आयौ, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा|

म्वाछन का कीन्हें सफाचट्ट, मुंह पौडर औ सिर केस बड़े
तहमद पहिरे कम्बल ओढ़े, बाबू जी याकै रहैं खड़े
हम कहा मेम साहेब सलाम, उई बोले चुप बे डैमफूल
'मैं मेम नहीं हूँ साहेब हूँ ', हम कहा फिरिउ ध्वाखा होइगा|

हम गयन अमीनाबादै जब, कुछ कपड़ा लेय बजाजा मा
माटी कै सुघर मेहरिया असि, जहं खड़ी रहै दरवाजा मा
समझा दुकान कै यह मलकिन सो भाव ताव पूछै लागेन
याकै बोले यह मूरति है, हम कहा बड़ा ध्वाखा होइगा ।

धँसि गयन दुकानैं दीख जहाँ, मेहरेऊ याकै रहैं खड़ी
मुंहु पौडर पोते उजर - उजर, औ पहिरे सारी सुघर बड़ी
हम जाना मूरति माटी कै, सो सारी पर जब हाथ धरा
उइ झझकि भकुरि खउख्वाय उठीं, हम कहा फिरिव ध्वाखा होइगा।



2.दानी किसान (काका की किसान चेतना इस कविता में देखने योग्य है--)

धन्नि धन्नि किसान दानी। 
लखि उदार तुम्हार हिरदय/पिघलि कै धावति हिमालय
बहि नदिन मा गुनगुनत है/सूख ख्यातन देत पानी।
धन्नि धन्नि किसान दानी।।
रीझि कै तुम्हरी दया पर/सुरज नावत सोन झर झर/
बनत बलगर खेत जर जर /मिलति सकती सब हेरानी।
धन्नि धन्नि किसान दानी।।
देखि त्यागु तुम्हार खेतिहर/सकल ख्यातन घेरि बादर
करत निज जीवन निछावर/मोह कोहकत दीठि बानी।
धन्नि धन्नि किसान दानी।।
तपनि भुलि- भुलि सौत –सिहरनि/चंडलूक बयारि हउकनि
सहेउ उधरेउ बदन तब ही /अन्न की रासी देखानी।
धन्नि धन्नि किसान दानी।।
लै गये परजा पवन कुछु /प्वात मा हुइगा गवन कुछु
सेस मा बेउहर बखारिन/तुम रहेव भूखे परानी।
धन्नि धन्नि किसान दानी।।
जगु जियत तुम्हरे निहोरे/पगु परत तुम्हरे निहोरे
नष्ट रचना होति बिधि कै/जो न होतेव अन्नदानी।
धन्नि धन्नि किसान दानी।।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

डां.भारतेन्दु मिश्र से उनके अवधी लेखन पर बातचीत

डां.रश्मिशील

प्र.1.रश्मिशील:-आप अवधी के रचनाकार है । आजकल नेट का जमाना है ,तो क्या अवधी साहित्य भी नेट पर उपलब्ध है ?
उ.1.भारतेन्दु मिश्र:-  रश्मिशील जी,आपने  सच कहा कि आजकल नेट  का जमाना है ऐसे तकनीकी समय  में अवधी जैसी लोक भाषा को भी नेट पर होना चाहिए। तो इस बात को मैं इस रूप में देखता हूं कि अंग्रेजी से इतर अनेक भाषाएं नेट पर आ गयी हैं ,कुछ भाषाओं  के पास अधिक  समर्थ कवि लेखक पत्रकार हैं जो साधन संपन्न होने के कारण तकनीकि संपन्न भी हैं और नेट पर अच्छा काम कर रहे हैं। अवधी का लोक जीवन और अवधी का रचनाकार उतना समर्थ  नही हैं।यह अवध के  हुक्मरानों द्वारा सदियों से शोषित आम जन की भाषा है।यह किसानों मजदूरों की अभिव्यक्ति का साधन है । यहां वैसा साधन संपन्न  भद्र लोक नही है।अवधी के कवि और लेखक भी वैसे संपन्न वर्ग से नहीं आते है। ..तो अवधी बहुत कम ही नेट पर दिखाई देती है। लेकिन 2009 से भाई डां.अमरेन्द्र त्रिपाठी का ब्लाग –अवधी कै अरघान –और ,अवधी,और बतकही ब्लाग को देख रहा हूं। कुछ और भी  मित्र काम कर रहे है।..मैने भी 2009 से ही -चिरैया अवधी प्रसंग नेट पत्रिका-ब्लाग शुरू किया था। कुछ और भी मित्र हैं-फेसबुक पर भी कई मित्र हैं जो अवधी मे कुछ थोडी बहुत सामग्री डालते रहते है। लेकिन यह अभी न के बराबर ही है। कविता कोश वालों ने अमीर खुसरो से लेकर -पढीस,बंशीधर शुक्ल और हमारे युवा कवि अशोक अग्यानी तक की कुछ कविताओं की बानगी नेट पर डाली है।       
प्र.2. रश्मिशील :-इस प्रकार के साहित्य की आपकी दृष्टि मे क्या उपयोगिता हो सकती है ?.क्योकि नेट की पहुंच मे अवध के गांव वहां के किसान आदि तो नही आते ?
उ.2.भारतेन्दु मिश्र:- देखिए,मेरी दृष्टि में तो नेट पर उपलब्ध साहित्य की बहुत उपयोगिता है।आज दुनिया भर में अवधी भाषी परिवारों के लोग बिखरे हुए हैं उन्हे इस माध्यम से अवधी से जुडने का अवसर मिला है। अवधी के सर्वत्र सुलभ साहित्य के नाम पर रामचरित मानस ऐसी पुस्तक है जो सब जगह मिल जाती है। आरती चालीसा आदि जो धार्मिक साहित्य है वह भी अवधी को जीवित रखने में सहायक सिद्ध हुआ है। दूसरी बात किसानो और मजदूरों की है तो यह सही कि नेट के साहित्य की पहुंच उन तक अभी नही है। किंतु साक्षरता और तकनीकि के विकास के साथ ही नेट  के साहित्य की उपयोगिता बढ जाएगी। समय लगेगा लेकिन वास्तविक विकास तो उस दिन शुरू होगा जब हम किसान मजदूर की भाषा में उसके सुख दुख को पढ  सकेंगे और उसकी समस्याओं को उसकी जरूरतों के अनुसार निपटा सकेंगे।मेरी दोनो ही अवधी उपन्यासों में मेरे पात्र इसी तरह काम करते हैं।   
प्र.3. रश्मिशील :-आपके  दो अवधी  उपन्यास –नई रोसनी और चन्दावती प्रकाशित हुए हैं,उनकी चर्चा भी होती है ।लेकिन अवधी में गद्य लिखने की प्रेरणा आपको कहा से मिली ?
उ.3.भारतेन्दु मिश्र:-रश्मिशील जी ,इन दोनो उपन्यासों से भी पहले मेरी एक अवधी कविता की पुस्तक सन 2000 मे –कस परजवटि बिसारी- शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। संयोगवश इसी पुस्तक में मेरे दस ललित निबन्ध भी संकलित हैं। इस पुस्तक की आधिकांश रचनाएं जाहिर है कि नवें दशक या उससे पहले की हैं।मेरी अवधी कविताएं प्रकाशित करने  का काम डां. सुशील सिद्धार्थ ने सबसे पहले किया   वे उनदिनों –बिरवा-शीर्षक पत्रिका निकालते थे।,उनका अपना प्रेस भी था। पहलीबार बिरवा के अंक 7 में मेरे कुछ अवधी गीत प्रकाशित हुए।तो अनेक मित्रो के पत्र मिले यह संभवत: 1989 या 1990 की बात होगी। तब फोन कम होते थे। इसी बीच मैं आदरणीय त्रिलोचन जी के संपर्क मे आया।वे यही यमुनाविहार मे रहते थे। तब यहीं आद्याप्रसाद उन्मत्त जी भी रहते थे।बहरहाल त्रिलोचन जी ने ही मुझे अवधी मे गद्य लिखने की प्रेरणा दी।मैंने इसी लिए पहली पुस्तक में ही दस निबन्ध संकलित किए।ये पहली पुस्तक आदरणीय त्रिलोचन जी को ही समर्पित भी थी। तो जब उन्हे यह पुस्तक भेट की  तब वे हरिद्वार मे रहते थे।पुस्तक देने मैं स्वयं नही जा पाया था बल्कि डाक  से भेजी थी। तो उनके कई फोन भी आए और पत्र भी मिले जो कहीं सुरक्षित रखे हैं।
प्र.4. रश्मिशील :-हिन्दी यानी मुख्यधारा की उपन्यास की तुलना मे अवधी उपन्यास मे क्या अंतर है ? आपने  हिन्दी मे भी लिखा है –कुलांगना-आपकी उपन्यास सन-2002 मे प्रकाशित हुई थी और बाद मे अवधी के दोनो उपन्यास क्रमश:-2009और 2011 में प्रकाशित हुए तो आपको अवधी का चुनाव क्यो करना पडा ?
उ.4.भारतेन्दु मिश्र:- रश्मिशील जी ,हिन्दी विश्वभाषा है उसके पास अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि से संपन्न लेखक हैं।विश्वस्तरीय मंच हैं- मुद्दे और समस्याएं भी विश्वस्तरीय  है,लेकिन अवधी एक सीमित क्षेत्र की भाषा है किंतु उसे भी समझने वाले  लोग करोडो की संख्या में हैं। और ये भी  सच है कि अवधी भाषी समाज के मुद्दे और प्राथमिकताएं अलग हैं,उदाहरणार्थ अवध के किसानो की समस्या,ग्राम्य युवकों और युवतियों की समस्याएं इस क्षेत्र के विकास आदि की दशा और दिशा।अवध की महिलाएं और उनकी धर्मभीरु पुरुषवादी चेतना आदि विषय हो सकते हैं- तो मुझे लगता है कि अवध के समाज को प्रगतिशील सोच से जोडने का इससे बेहतर और क्या उपाय हो सकता है ?  बस मैं यह जानता हूं कि मेरी दोनो उपन्यासों को पाठकों का बहुत स्नेह मिला।..रचनाकार के नाते मुझे भी अपनी मेहनत को लेकर संतोष है।..बाकी तो समय बताएगा कुछ और लोग आएंगे, अवधी गद्य में आपकी कहानियां..सुरेशप्रकाश शुक्लकी उपन्यास,ज्ञानवती की कहानियां,   अखलाक अहमद की कहानियां,रामबहादुर मिश्र का निबन्ध संग्रह आदि ऐसी सामग्री अब उपलब्ध है या होती जा रही है जिसे लेकर हम कह सकते हैं कि ये अवधी में गद्य का युग शुरू हो चुका है। यद्यपि लक्ष्मणप्रसाद मित्र के अवधी नाटक और रमईकाका के रेडियो रूपक अवधी गद्य के रूप मे पहले  से ही उपल्ब्ध हैं लेकिन वह साहित्य हास्य व्यंग्य की शैली मे लिखा गया है।आधुनिक अवधी गद्य की वैचारिक चेतना आधुनिक समाज के अनुरूप होनी चाहिए। ..तो अवधी लिखना मेरे लिए अपनी माटी को अपने सिर पर उलीचने जैसा है जो यहां दिल्ली मे नही मिलती।
प्र.5. रश्मिशील :-स्त्रीविमर्श की कसौटी  पर आपके नारी पात्र कितने खरे उतरते हैं? क्या चन्दावती को प्रगतिशील नारी पात्र की कोटि में रखा जा सकता है ?
उ.5.भारतेन्दु मिश्र:- देखिए ,स्त्रीविमर्श की कसौटी के बारे में मुझे अधिक ज्ञान नही है। वो सब तो आप लोग ही बता सकते हैं।लेकिन जहां तक चन्दावती की बात है तो वह एक जुझारू और प्रगतिशील नारी के रूप में उपन्यास मे उपस्थित है।वो मर जाने के बाद भी गांव समाज की एक प्रगतिशील नारी चेतना के रूप मे चित्रित की गई है।नई रोसनी में सुरसतिया,फूलमती और चन्दावती में गेन्दा,रधिया,मीरा,फूलमती जैसे पात्र जो देवीदल बनाते दिखाई देते हैं वो सब मेरे जीवित सपनों के संघर्षशील पात्र हैं।..लेकिन ये काल्पनिक सपनों के पात्र नहीं हैं अब ये  अवध के गांवों में  कहीं न कहीं प्रकट भी होने लगे हैं।नारी की प्रगतिशीलता से ही किसी  समाज की प्रगतिशीलता  का वास्तविक आकलन होता है । स्त्री की प्रगतिशीलता की बात तो प्रगतिशील मंचों से कम ही उठाई जा रही है।
प्र.6. रश्मिशील :-इधर लेखन में खुलेपन की वकालत की जा रही है .यह खुलापन अपनी संस्कृति पर प्रहार  नही है क्या ?..यदि प्रहार नही है तो क्या ये समय की मांग है ?
 उ.6.भारतेन्दु मिश्र:- खुलापन आप किसे कहती हैं,अशालीन या अश्लील भाषा यदि प्रसंगवश कहीं आती है तो उसे यथार्थवादी दृष्टि ही समझना चाहिए। ...आपको मालूम है कि तकनीकि के इस विकसित युग में तमाम युवा अपने फोन मे कितनी अश्लील सामग्री लिए फिर रहे हैं ? तो ये तकनीकि के साथ आने वाले अपसंस्कृति नही रुक पा रही है। हमें चौकन्ना होकर अपने बच्चों को पोनोग्राफी के बाजार से बचाना है। कहानी उपन्यास में यदि कहीं गालियों का प्रयोग कथानक की आवश्यकता के हिसाब से हो गया है तो उससे संस्कृति को कोई खतरा मुझे नही लगता। बल्कि सांस्कृतिक रूढियों को तोडकर ही नई रोसनी फैलाई जा सकती है।..तो निश्चित रूप से जैसा आपने कहा ये समय की मांग है।    
प्र.7. रश्मिशील :-अभी पिछले दिनो आपकी दो किताबें आयी हैं –एक कहानी संग्रह –खिड्की वाली सीट और दूसरी छन्दोबद्ध कविता की आलोचना की-समकालीन छन्द प्रसंग,तो क्या आप दोनो हाथ से लिखते हैं ?
उ.7.भारतेन्दु मिश्र:-जी ,हां मैं पिछले सात वर्षों से दोनो हाथों से ही लिख रहा हूं ,यानी कम्प्यूटर पर टाइप कर रहा हूं ..तो आप कह सकती हैं कि मै सचमें दोनो हाथों से लिख रहा हूं।लेकिन ये बात नही कि सब कुछ फटाफट लिखता जा रहा हूं।ये दोनो किताबें पिछले दो दशकों से विलम्बित थीं जो अब 2013 में प्रकाशित हो पायीं।
प्र.8. रश्मिशील :-समकालीन कविता मे छन्द या छन्दोबद्ध कविता  की क्या प्रासंगिकता है?
 उ.8.भारतेन्दु मिश्र:-जी, ये अंतिम प्रश्न है न ?
 रश्मिशील :- जी हां।

  भारतेन्दु मिश्र:- हां तो छ्न्दोबद्ध कविता की प्रासंगिकता की बात आप कर रही हैं।देखिए मैं तो लोक और अंचल से जुडकर देखता और सोचता हूं तो लगता है कि छन्दोबद्ध कविता ही दूर दूर तक दिखाई देती है। जो छ्न्दहीन कविता लिखते हैं और अकादमियों मे साल छह महीने में कभी एक बार अपनी कविता सुनाने के लिए बुलाए जाते हैं।उनका जनता से सीधा जुडाव बन नही पाता। उनके यहां किसान और मजदूर की भी बात अब नही होती। तो लोग क्यों पढेंगे छन्दहीन  नीरस कविताएं। भारतीय कविता की चेतना को यदि आगे ले जाना है तो छन्दोबद्ध कविता पर हमे बार बार बात करनी होगी।  कविता पाठ्य और श्रव्य दोनो रूपों में परखी जाती है। मैं कविसम्मेलनों के मस्खरों और भांडो का हिमायती बिल्कुल नही हूं।

प्रस्तुति:डां.रश्मिशील -3/8लेबर कालोनी -टिकैतराय तालाब ,लखनऊ-226004
फोन.9235858688

गुरुवार, 6 मार्च 2014




हरी जवानी

हम किसान हन
क्याला के बिरवा जैसी तकदीर
सारी दुनिया पूजै हमका
सत्यनरायन स्वामी के
हमहे मंडप हन
बेफै बेफै लोग हिंया आरती उतारै
पढ़ि पोथी फिरि हमका
सरधा ते अकत्यावें
लोटियन भरि भरि नीरु चढ़ावें
भजन सुनावें
आँखी मूंदि पंडितउनू तब संखु बजावैं
पोथिन मा अपनी इज्जति पर
झूमि-झूमि हरसाई
दिन दूने औ रात चौगुने
फूलि फूलि हरियाई
फूल चढ़ा तौ बतिया आयीं
तिनुक पोढाई
अब तौ फल पर
ललुआ बुधुआ सबही की नजरें ललचाईं
पाहिले गहरि काटि लैगे
फिरि जड़ ते काटेनि
हिलि मिलि कै पूजा का फल
अपनेंन मा बाटेनि
की ते रोई -कौनु सुनी
हमारी यह बिथा किहानी
लूटि चुके हैं गांवै वाले हमारी फसलें
काटि रहे हैं जड़
अबहीं है हरी जवानी |




मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014


उनकी सुधि का प्रणाम :आधुनिक अवधी क्यार महाकवि

बंसीधर कै बात निराली

सबके दादा सबके भैया
अवधी जीवन क्यार गवैया
बंसीधर कै बात निराली|

उनकी कबिता माँ झलकति है
सब किसान की दुनिया
चमकि रहे हैं गाँव देस के
मोलहे बुधई – झुनिया
टिका न कौनौ उनके समुहे
तिकडमबाज बवाली |

राजा की कोठी माँ की बिधि
लगा खून का गारा
सगरी कथा बतायेनि दउआ
यूं किसानु कस हारा
नए बिचारन की कबिताई
जस भोरहे की लाली|

गाँव देस सब जानै उनका
मनई सबते नीक
अवधी क्यार निराला हैं ई
नई बनाएनि लीक
उनहेनि के जनमे ते हुइगै
माटी अमर मनेउरा वाली|